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ब्रह्मा॑ कृणोति॒ वरु॑णो गातु॒विदं॒ तमी॑महे। व्यू॑र्णोति हृ॒दा म॒तिं नव्यो॑ जायतामृ॒तं वि॒त्तं मे॑ अ॒स्य रो॑दसी ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

brahmā kṛṇoti varuṇo gātuvidaṁ tam īmahe | vy ūrṇoti hṛdā matiṁ navyo jāyatām ṛtaṁ vittam me asya rodasī ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ब्रह्मा॑। कृ॒णो॒ति॒। वरु॑णः। गा॒तु॒ऽविद॑म्। तम्। ई॒म॒हे॒। वि। ऊ॒र्णो॒ति॒। हृ॒दा। म॒तिम्। नव्यः॑। जा॒य॒ता॒म्। ऋ॒तम्। वि॒त्तम्। मे॒। अ॒स्य। रो॒द॒सी॒ इति॑ ॥ १.१०५.१५

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:105» मन्त्र:15 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:22» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:15» मन्त्र:15


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर कैसे इसको पावे, यह उपदेश अगले मन्त्र में किया है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हम लोग जो (ऋतम्) सत्यस्वरूप (ब्रह्म) परमेश्वर वा (वरुणः) सबसे उत्तम विद्वान् (गातुविदम्) वेदवाणी के जाननेवाले को (कृणोति) करता है (तम्) उसको (ईमहे) याचते अर्थात् उससे माँगते हैं कि उसकी कृपा से जो (नव्यः) नवीन विद्वान् (हृदा) हृदय से (मतिम्) विशेष ज्ञान को (व्यूर्णोति) उत्पन्न करता है अर्थात् उत्तम-उत्तम रीतियों को विचारता है वह हम लोगों के बीच (जायताम्) उत्पन्न हो। शेष अर्थ प्रथम मन्त्र के तुल्य जानना चाहिये ॥ १५ ॥
भावार्थभाषाः - किसी मनुष्य पर पिछले पुण्य इकट्ठे होने और विशेष शुद्ध क्रियमाण कर्म करने के विना परमेश्वर की दया नहीं होती और उक्त व्यवहार के विना कोई पूरी विद्या नहीं पा सकता, इससे सब मनुष्यों को परमात्मा की ऐसी प्रार्थना करनी चाहिये कि हम लोगों में परिपूर्ण विद्यावान् अच्छे-अच्छे गुण, कर्म, स्वभावयुक्त मनुष्य सदा हों। ऐसी प्रार्थना को नित्य प्राप्त हुआ परमात्मा सर्वव्यापकता से उनके आत्मा का प्रकाश करता है, यह निश्चय है ॥ १५ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरेतं कीदृशं प्राप्नुयादित्युपदिश्यते ।

अन्वय:

वयं यदृतं ब्रह्म वरुणो गातुविदं कृणोति तमीमहे तत्कृपया यो नव्यो विद्वान् हृदा मतिं व्यूर्णोति सोऽस्माकं मध्ये जायताम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥ १५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ब्रह्म) परमेश्वरः। अत्रान्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः। (कृणोति) करोति (वरुणः) सर्वोत्कृष्टः (गातुविदम्) वेदवाग्वेत्तारम् (तम्) (ईमहे) याचामहे (वि) (ऊर्णोति) निष्पादयति (हृदा) हृदयेन। अत्र पद्दन्नो०। इति हृदयस्य हृदादेशः। (मतिम्) विज्ञानम् (नव्यः) नवीनो विद्वान् (जायताम्) (ऋतम्) सत्यरूपम् (वित्तं, मे, अस्य०) इति पूर्ववत् ॥ १५ ॥
भावार्थभाषाः - नहि कस्यचिन्मनुष्यस्योपरि प्राक्पुण्यसंचयविशुद्धक्रियमाणाभ्यां कर्मभ्यां विना परमेश्वरानुग्रहो जायते। नह्येतेन विना कश्चित्पूर्णां विद्यां प्राप्तुं शक्नोति तस्मात्सर्वैर्मनुष्यैरस्माकं मध्ये प्राप्तपूर्णविद्याः शुभगुणकर्मस्वभावयुक्ता मनुष्याः सदा भूयासुरिति परमात्मा प्रार्थनीयः। एवं नित्यं प्रार्थितः सन्नयं सर्वव्यापकतया तेषामात्मानं सम्प्रकाशयतीति निश्चयः ॥ १५ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - कोणत्याही माणसाची पूर्व पुण्याई एकत्र होण्याने व विशेष शुद्ध क्रियमाण कर्म केल्याखेरीज परमेश्वराची दया प्राप्त होत नाही व वरील व्यवहाराशिवाय कोणीही पूर्ण विद्या प्राप्त करू शकत नाही. त्यामुळे सर्व माणसांनी परमेश्वराला अशी प्रार्थना केली पाहिजे की, आमच्यात परिपूर्ण विद्यायुक्त चांगली गुण, कर्म, स्वभावयुक्त माणसे सदैव असावीत अशी प्रार्थना केल्यावर परमात्मा सर्वव्यापकतेने त्यांच्या आत्म्यात प्रकाश पाडतो, हे निश्चित आहे. ॥ १५ ॥